धर्म ग्रंथों के अनुसार हर व्यक्ति को अपनी कमाई का न्यूनतम दस प्रतिशत भाग जरूरतमंदों को दान करना चाहिए। दान का मतलब है देना। जो वस्तु स्वयं की इच्छा से देकर वापस न ली जाए उसे हम दान कहते हैं। दान में अन्न, जल, धन-धान्य, शिक्षा, गाय, बैल आदि दिए जाते हैं। परंपरा में दान को कर्तव्य और धर्म माना जाता है। शास्त्रों में भी इसका उल्लेख है-
दानं दमो दया क्षान्ति: सर्वेषां धर्मसाधनम् ॥
-याज्ञवल्क्यस्मृति, गृहस्थ
अर्थ- दान, अन्त:करण का संयम, दया और क्षमा सभी के लिए सामान्य धर्म साधन हैं।
धर्मग्रंथों में दान के चार प्रकार बताए गए हैं.
नित्यदान
किसी के परोपकार की भावना और किसी फल की इच्छा न रखकर यह दान दिया जाता है।
नैमित्तिक दान
अपने पापों की शांति के लिए विद्वान ब्राह्मणों के हाथों पर यह दान रखा जाता है।
काम्य दान
संतान, जीत, सुख-समृद्धि और स्वर्ग प्राप्त करने की इच्छा से यह दान दिया जाता है।
विमल दान
जो दान ईश्वर की प्रसन्नता के लिए दिया जाता है।
दान का विधान किसके लिए?
दान का विधान हर किसी के लिए नहीं है। जो धन-धान्य से संपन्न हैं, वे ही दान देने के अधिकारी हैं। जो लोग निर्धन हैं और बड़ी कठिनाई से अपने परिवार की आजीविका चलाते हैं उनके लिए दान देना जरूरी नहीं है। ऐसा शास्त्रों में विधान है। कहते हैं कि कोई व्यक्ति अपने माता-पिता, पत्नी व बच्चों का पेट काटकर दान देता है तो उसे पुण्य नहीं बल्कि पाप मिलता है। खास बात यह कि दान सुपात्र को ही दें, कुपात्र को दिया दान व्यर्थ जाता है।
आय के दसवें भाग का दान
ऐसा कहा गया है कि न्यायपूर्वक यानी ईमानदारी से अर्जित किए धन का दसवां भाग दान करना चाहिए। यह एक कर्तव्य है। इससे ईश्वर प्रसन्न होते हैं।
न्यायोपार्जितवित्तस्य दशमोशेन धीमत:।
कर्तव्यो विनियोगश्च ईश्वरप्रीत्यर्थमेव च ॥
अर्थ- न्याय से उपार्जित धन का दशमांश बुद्धिमान व्यक्ति को दान करना चाहिए।
दान एक सामाजिक व्यवस्था
वास्तव में दान एक सामाजिक व्यवस्था है। समाज में इससे संतुलन बनता है। दान के कारण ही कई निर्धन परिवार के लोगों का भरण पोषण हो पाता है। भारतीय संस्कृति में कहा गया है कि हर जीव में परमात्मा का वास है। अत: कोई व्यक्ति भूखा न रहे। दानधर्म से ही यह संस्कृति अटूट है।